Wednesday, July 27, 2011

त'अर्रुफ़ : मजाज़ लखनवी


ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं|
जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबग़ार हूँ मैं|

इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी,
फ़ितना-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं|

छेड़ती है जिसे मिज़राब-ए-अलम,
साज़-ए-फ़ितरत का वही तार हूँ मैं|

ऐब जो हाफ़िज़-ओ-ख़य्याम में था,
हाँ कुछ इस का भी गुनहगार हूँ मैं|

ज़िन्दगी क्या है गुनाह-ए-आदम,
ज़िन्दगी है तो गुनहगार हूँ मैं|

मेरी बातों में मसीहाई है,
लोग कहते हैं कि बीमार हूँ मैं|

एक लपकता हुआ शोला हूँ मैं,
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं|

Tuesday, July 26, 2011

साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं : बशीर बद्र


साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं
इक नदी के दो किनारों को मिला सकते नहीं

देने वाले ने दिया सब कुछ अजब अंदाज से
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं

इस की भी मजबूरियाँ हैं, मेरी भी मजबूरियाँ हैं
रोज मिलते हैं मगर घर में बता सकते नहीं

आदमी क्या है गुजरते वक्त की तसवीर है
जाने वाले को सदा देकर बुला सकते नहीं

किस ने किस का नाम ईंट पे लिखा है खून से
इश्तिहारों से ये दीवारें छुपा सकते नहीं

उस की यादों से महकने लगता है सारा बदन
प्यार की खुशबू को सीने में छुपा सकते नहीं

राज जब सीने से बाहर हो गया अपना कहाँ
रेत पे बिखरे हुए आँसू उठा सकते नहीं

शहर में रहते हुए हमको जमाना हो गया
कौन रहता है कहाँ कुछ भी बता सकते नहीं

पत्थरों के बर्तनों में आँसू को क्या रखें
फूल को लफ्जों के गमलों में खिला सकते नहीं

Sunday, July 24, 2011

सौ बार चमन महका सौ बार बहार आई : सूफी गुलाम मुस्तफा तबस्सुम


सौ बार चमन महका सौ बार बहार आई
दुनिया की वही रौनक दिल की वही तन्हाई

हर दर्द-इ-मुहब्बत से उलझा है गम-इ-हस्ती
क्या क्या हमें याद आया जब याद तेरी आई

देखे है बहुत हम ने हंगामे मुहब्बत के
आगाज़ भी रुसवाई अंजाम भी रुसवाई


ये बज़्म-इ-मुहब्बत है इस बज़्म-इ-मुहब्बत में
दीवाने भी सौदाई फर्जाने भी सौदाई

दिल जलेगा तो ज़माने में उजाला होगा : प्रेम वार्बर्तोनी


दिल जलेगा तो ज़माने में उजाला होगा
हुस्न ज़र्रो का सितारों से निराला होगा

कौन जाने ये मोहब्बत की सज़ा है के सिला
हम किनारे पे भी पहुंचे तो किनारा न मिला
बुझ गया चाँद किसी दर्द भरे दिल की तरह
रात का रंग अभी और भी काला होगा

देखना रोयेगी फ़रियाद करेगी दुनिया
हम न होंगे तो हमें याद करेगी दुनिया
अपने जीने की अदा भी अनोखी सब से
अपने मरने का भी अंदाज़ निराला होगा

न सोचा न समझा न सीखा न जाना : मीर तक़ी 'मीर'


न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया ख़ुदबख़ुद दिल लगाना
ज़रा देख कर अपना जल्वा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाये ज़माना
ज़ुबाँ पर लगी हैं वफ़ाओं कि मुहरें
ख़मोशी मेरी कह रही है फ़साना
गुलों तक लगायी तो आसाँ है लेकिन
है दुशवार काँटों से दामन बचाना
करो लाख तुम मातम-ए-नौजवानी
प 'मीर' अब नहीं आयेगा वोह ज़माना

Thursday, July 21, 2011

मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं : बशीर बद्र


मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हाये मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं

हम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मुहब्बत यारो
ठोकरें खा के सुना था कि सम्भल जाते हैं

ये कभी अपनी जफ़ा पर न हुआ शर्मिन्दा
हम समझते रहे पत्थर भी पिघल जाते हैं

उम्र भर जिनकी वफ़ाओं पे भरोसा कीजे
वक़्त पड़ने पे वही लोग बदल जाते हैं

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता: बशीर बद्र


परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता
कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता